घबरा गए अगर तो कहीं के न रहोगे।
मरने से गए डर तो कहीं के न रहोगे॥
इंसानियत के बीच मे नफ़रत को न लाओ,
फैलेगा ये ज़हर तो कहीं के न रहोगे॥
ये मोमिनों ख़ुदा को तो रुसवा न कीजिये,
टूटेगा जब क़हर तो कहीं के न रहोगे॥
जो साथ चलोगे तो मिलेगी तुम्हें मंज़िल,
गया वक़्त जो गुज़र तो कहीं के न रहोगे॥
इतना यक़ीन मत करो उसकी वफ़ा पे तुम ,
हुआ बेवफ़ा अगर तो कहीं के न रहोगे ॥
चैन-ओ-अमन मे जी रहा हर एक आदमी,
उजड़ा जो ये शहर तो कहीं के न रहोगे॥
मुंसिफ़ के सामने है खड़ा क़त्ल का गवाह,
जाएगा वो मुक़र तो कहीं के न रहोगे॥
ये दोस्तों शराब को ज्यादा न पीजिए,
फूंकेगी ये जिगर तो कहीं के न रहोगे॥
ऊंची उड़ान भरने से पहले तू सोच ले,
“सूरज” जो टूटा पर तो कहीं के न रहोगे॥
डॉ॰सूर्या बाली “सूरज”
No comments:
Post a Comment